गुरुवार, 27 अगस्त 2015

विदाई

ठीक ही कहा था उस कवि ने कि " विदा ...शब्दकोश का सबसे रुँआसा शब्द है..."

(विदाई से पहले)

मुझे याद है
तुम्हारी मौजू़दगी
खारिज़ करती रही है
जोड़ के सभी सिद्धान्तों को
जो व्यक्त करते थे संख्याओं में
तुम्हारा,हमारा,सबका होना
जबकि हम एक थे

तुम्हारे साथ
मैने देखा है तुम्हारी बेलौस हँसी की कलाई थाम
वक्त का भाप बनकर उड़ जाना
और
यकीन मानो मै विस्मृत कर चुका हूँ
उन कैलेंन्डरों को पढ़ने की कला
जो उदास दिनों का ब्योरा रखते थे

(आज विदाई के बाद)

आज विरहणी सांझ की धूसर पीठ पर
मैने नमकीन समन्दर देखे हैं
मैने देखी है पनीली आँखों में मिलन की आस
विछोह की छटपटाहट देखी है मैने
मैने देखा है काँपती हथेलियों को
जिन्हे रुख़्सतग़ी कत्तई गवारा नहीं
मैने देखा है थरथराते होठों को
जिनकी चीख में है एक तुम्हारा ही नाम

अब जबकि नहीं हो तुम मेरे पास
सोंचता हूँ,कि खुरच कर ले आऊँ
तुम्हारी बची हुयी स्मृतियों को
अतीत की नम दीवारों से

(आज विदाई की तस्वीरें जुटाते साथियों को देखकर ऐसा लगा कि उनके साथ बीते दिनों में दर्ज़ हमारी और उन सबकी मौजूदगी की आखिरी गवाह ये तस्वीरें बनेंगी ...2 साल पहले लिखी मेरी ही एक कविता के बीचोंबीच लिखी ये पंक्तियां "छिटक कर बिखर गयीं/कुछ तस्वीरों के कोलाज/तुम्हारी कुल जमा जिन्दगी होती है" तुम पर एकदम सटीक बैठती हैं)

(अभिषेक शुक्ल)

http://shuklaabhishek147.blogspot.in/2013/05/blog-post_31.html?m=1